तुम कह दो तो गरल कलश को मैं तेरा उपहार मान लूँ विस्मृति के सन्दर्भो में जब नव प्रभात के घोष उभरते संस्कृति के वातायन से जब भी अतीत के गीत मचलते सुधियों का पंछी जब भी पर फैलाकर नभ में उड़ता है व्याकुल विरही आकुल मन से आधे पथ से ही मुड़ता है संतापों से सिक्त आसुओं को कैसे नीहार मान लू तुम कह दो तो गरल कलश को मैं तेरा उपहार मान लूँ जीवन के अरणाभ क्षितिज पर प्राची का सूरज जब बोले धनी तमिश्रा म में सोई उषा का सहसा घूंघट खोले दूर कहीं अमराई में आकुल कण्ठों का गीत सलोना नश्वर जग में किस पर हंसना किसकी सुधि में बरबस रोना शाश्वत जीवन के क्रम को कैसे मैं उपसंहार मान लूँ तुम कह दो तो गरल कलश को मैं तेरा उपहार मान लूँ | – देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’ देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
तुम कह दो तो
तुम कह दो तो गरल कलश को
मैं तेरा उपहार मान लूँ
विस्मृति के सन्दर्भो में जब
नव प्रभात के घोष उभरते
संस्कृति के वातायन से
जब भी अतीत के गीत मचलते
सुधियों का पंछी जब भी
पर फैलाकर नभ में उड़ता है
व्याकुल विरही आकुल मन से
आधे पथ से ही मुड़ता है
संतापों से सिक्त आसुओं को
कैसे नीहार मान लू
तुम कह दो तो गरल कलश को
मैं तेरा उपहार मान लूँ
जीवन के अरणाभ क्षितिज पर
प्राची का सूरज जब बोले
धनी तमिश्रा म में सोई
उषा का सहसा घूंघट खोले
दूर कहीं अमराई में
आकुल कण्ठों का गीत सलोना
नश्वर जग में किस पर हंसना
किसकी सुधि में बरबस रोना
शाश्वत जीवन के क्रम को
कैसे मैं उपसंहार मान लूँ
तुम कह दो तो गरल कलश को
मैं तेरा उपहार मान लूँ |
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
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