स्वारथ के आँगन बसा जब से ये इन्सान भूल गया व्यक्तित्व की अपनी वो पहचान बड़ा आदमी क्या बना बदली उसकी चाल अब उसके आँगन लगे चमचों की चौपाल सोच समझ कर चाल चल पूरा रख तू ध्यान कौन यहाँ अपना सनम रख इसकी पहचान कुछ सपने लेकर चला जीवन भर मैं साथ कर न सका पूरे कभी लगा न कुछ भी हाथ कुछ भी तो न कर सका जो चाहा था यार कभी किनारा नहीं मिला फंसा रहा मझधार जो सोचा मन में सनम कर डालो वो काम गया समय आता नहीं सुबहा हो या शाम सम्बन्धों ने चोट दी हर पल मारी लात किसको जाकर हम कहें अपने ये हालात – जगदीश तिवारी जगदीश तिवारी जी की दोहा जगदीश तिवारी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
स्वारथ के आँगन बसा
स्वारथ के आँगन बसा जब से ये इन्सान
भूल गया व्यक्तित्व की अपनी वो पहचान
बड़ा आदमी क्या बना बदली उसकी चाल
अब उसके आँगन लगे चमचों की चौपाल
सोच समझ कर चाल चल पूरा रख तू ध्यान
कौन यहाँ अपना सनम रख इसकी पहचान
कुछ सपने लेकर चला जीवन भर मैं साथ
कर न सका पूरे कभी लगा न कुछ भी हाथ
कुछ भी तो न कर सका जो चाहा था यार
कभी किनारा नहीं मिला फंसा रहा मझधार
जो सोचा मन में सनम कर डालो वो काम
गया समय आता नहीं सुबहा हो या शाम
सम्बन्धों ने चोट दी हर पल मारी लात
किसको जाकर हम कहें अपने ये हालात
– जगदीश तिवारी
जगदीश तिवारी जी की दोहा
जगदीश तिवारी जी की रचनाएँ
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One reply to “स्वारथ के आँगन बसा”
Alok Pratap Singh
A strong message for all of us.