अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते मोहब्बत करने वाले दल परेशानी में आ जाते हिसार-ए-सब्र से जिस रोज़ मैं बाहर निकल आता समुंदर ख़ुद मिरी आँखों की वीरानी में आ जाते अगर साए से जल जाने का इतना ख़ौफ़ था तो फिर सहर होते ही सूरज की निगहबानी में आ जाते जुनूँ की अज़्मतों से आश्नाई ही न थी वर्ना जो थे अहल-ए-ख़िरद सब चाक-दामानी में आ जाते किसी ज़रदार की यूँ नाज़-बरदारी से बेहतर था किसी उजड़े हुए दिल की बयाबानी में आ जाते –अज़्म शाकरी अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल अज़्म शाकरी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
अगर दश्त-ए-तलब से
अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते
मोहब्बत करने वाले दल परेशानी में आ जाते
हिसार-ए-सब्र से जिस रोज़ मैं बाहर निकल आता
समुंदर ख़ुद मिरी आँखों की वीरानी में आ जाते
अगर साए से जल जाने का इतना ख़ौफ़ था तो फिर
सहर होते ही सूरज की निगहबानी में आ जाते
जुनूँ की अज़्मतों से आश्नाई ही न थी वर्ना
जो थे अहल-ए-ख़िरद सब चाक-दामानी में आ जाते
किसी ज़रदार की यूँ नाज़-बरदारी से बेहतर था
किसी उजड़े हुए दिल की बयाबानी में आ जाते
–अज़्म शाकरी
अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल
अज़्म शाकरी जी की रचनाएँ
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One reply to “अगर दश्त-ए-तलब से”
H Tiwari
आपकी रचना बहुत शानदार है आगे भी आपकी ऐसी ही रचनाओं का इन्तजार रहेगा।