मेरे होंठ कड़वा से कड़वा घूंट पीकर भी शान्ति का नाम लेते हैं | मेरी आँखें सब कुछ देखते हुए भी कुछ न देखने का अभिनय करती हैं | मेरे कान सब कुछ सुनते हैं मगर लगता है जैसे इन्होंने क्छ सुना ही नहीं मेरा चेहरा रहस्यों के तानों-बानों के ऐसे परदे के पीछे छिपा है जिसकी कई परतें उधेड़ कर भी उसे पढ़ा नहीं जा सकता फिर भी मेरे विचार समुद्र के तूफानों की गति से बढ़ते ही जा रहे है समय के बुलडोजरों से टकराने के लिए – गोविन्द व्यथित गोविन्द व्यथित जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
मेरे होंठ कड़वा से कड़वा घूंट पीकर भी
मेरे होंठ
कड़वा से कड़वा घूंट पीकर भी
शान्ति का नाम लेते हैं |
मेरी आँखें
सब कुछ देखते हुए भी
कुछ न देखने का
अभिनय करती हैं |
मेरे कान
सब कुछ सुनते हैं
मगर लगता है
जैसे इन्होंने क्छ सुना ही नहीं
मेरा चेहरा
रहस्यों के तानों-बानों के
ऐसे परदे के पीछे छिपा है
जिसकी कई परतें उधेड़ कर भी
उसे पढ़ा नहीं जा सकता
फिर भी मेरे विचार
समुद्र के तूफानों की गति से
बढ़ते ही जा रहे है
समय के बुलडोजरों से
टकराने के लिए
– गोविन्द व्यथित
गोविन्द व्यथित जी की रचनाएँ
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