टेसू क्या दहका है, मन क्यूँ यह बहका है वसुधा का कण कण ऐसा क्यूँ दरका है। गौरी के गाँव मुआ महुआ भी महका है गंध फाग खेल रहे कनक जुही चम्पा है।। महुए की मण्डी से ताड़ी की हण्डी से पी पी जन डोल रहे हाट बाट मस्ती से। मचल उठी मस्त मगन छैल छबीली गौरी भी देते तन ताल थिरक वासंती मन गुंजन भी।। कैसी फगुनाहट यह मदिर मदिर मौसम की खुसुर पुसुर जाहिर है अमलतास बेला की। अल्हड़ अलबेली ताल बजी पीपल की बेला आ पहुंची अब साजन के आवन की।। बजते माँदल पर थाली की थाप पड़ी चूनर की ओटों से गौरी की आँख भिड़ी। रसवन्ती रसना की मादक धुन सुन हुलसे हुरियारे की गलबाहियाँ आन जुड़ी।। आँखाँ ही आँखों में अनुबन्ध हुए बंधन के मल गया गुलाल गाल लिये साध जीवन के। वनजन गिरिजन रचते यह समवेत स्वयंवर यह भगोरिया उत्सव है गर्व करें हम इन पर।। – रामनारायण सोनी रामनारायण सोनी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
भागोरिया एक समवेत स्वयंवर
टेसू क्या दहका है, मन क्यूँ यह बहका है
वसुधा का कण कण ऐसा क्यूँ दरका है।
गौरी के गाँव मुआ महुआ भी महका है
गंध फाग खेल रहे कनक जुही चम्पा है।।
महुए की मण्डी से ताड़ी की हण्डी से
पी पी जन डोल रहे हाट बाट मस्ती से।
मचल उठी मस्त मगन छैल छबीली गौरी भी
देते तन ताल थिरक वासंती मन गुंजन भी।।
कैसी फगुनाहट यह मदिर मदिर मौसम की
खुसुर पुसुर जाहिर है अमलतास बेला की।
अल्हड़ अलबेली ताल बजी पीपल की
बेला आ पहुंची अब साजन के आवन की।।
बजते माँदल पर थाली की थाप पड़ी
चूनर की ओटों से गौरी की आँख भिड़ी।
रसवन्ती रसना की मादक धुन सुन
हुलसे हुरियारे की गलबाहियाँ आन जुड़ी।।
आँखाँ ही आँखों में अनुबन्ध हुए बंधन के
मल गया गुलाल गाल लिये साध जीवन के।
वनजन गिरिजन रचते यह समवेत स्वयंवर
यह भगोरिया उत्सव है गर्व करें हम इन पर।।
– रामनारायण सोनी
रामनारायण सोनी जी की रचनाएँ
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