छत पर अंगड़ाती कपोती की पाँखें,
सूनी-सूनी सी है विरहिन की आँखें |
शबनम का दर्पण है कितना अनूप,
दूध में नहाया सा रूप ||
हिलती पलकों पर रस बरसाकर,
परिपूरित गंध में नहाकर |
पुरवैया मन की गहराई को बेध गयी,
डूब गया मन जैसे कूप |
दूध में नहाया सा रूप ||
शरमाई तितली को खोया अभिसार मिला,
पाखों के आँचल में यौवन का फूल खिला |
आमंत्रण कैसा विद्रूप,
आंगन में उग आई धुप ||
किरणों का क्वारापन टूट गया,
सतरंगी प्याली में डूब गया |
अलसाया यौवन है मूक,
आँगन में उग आई धुप ||
मुट्ठी में सिमट गया तारों का जमघट,
जाने क्यों मौन हआ वातायन पनघट |
एक बार चितवन का जादू फिर आने दो
पलकों पर बैठ गयी भ्रमरी को गाने दो |
तुमको सौगन्ध तनिक हिलना मत,
गालों पर लाल लालफूल तो सजाने दो |
हाथों पर मेंहदी से चित्र कुछ बनाने दो,
मौसम है कितना अनुरूप |
आंगन में उतर आई धूप ||
कलियों ने घूंघट से झांका भर,
कानों में शहनाई उभर गयी |
चहक गये गात गात
महक गये पात पात |
सतरंगी सपनों में भ्रमरी क्यों तड़प रही,
रानी सी बासन्ती धूप |
दूध में नहाया सा रूप ||
आंगन में उग आई धुप
आंगन में उग आई धुप,
दूध में नहाया सा रूप |
छत पर अंगड़ाती कपोती की पाँखें,
सूनी-सूनी सी है विरहिन की आँखें |
शबनम का दर्पण है कितना अनूप,
दूध में नहाया सा रूप ||
हिलती पलकों पर रस बरसाकर,
परिपूरित गंध में नहाकर |
पुरवैया मन की गहराई को बेध गयी,
डूब गया मन जैसे कूप |
दूध में नहाया सा रूप ||
शरमाई तितली को खोया अभिसार मिला,
पाखों के आँचल में यौवन का फूल खिला |
आमंत्रण कैसा विद्रूप,
आंगन में उग आई धुप ||
किरणों का क्वारापन टूट गया,
सतरंगी प्याली में डूब गया |
अलसाया यौवन है मूक,
आँगन में उग आई धुप ||
मुट्ठी में सिमट गया तारों का जमघट,
जाने क्यों मौन हआ वातायन पनघट |
एक बार चितवन का जादू फिर आने दो
पलकों पर बैठ गयी भ्रमरी को गाने दो |
तुमको सौगन्ध तनिक हिलना मत,
गालों पर लाल लालफूल तो सजाने दो |
हाथों पर मेंहदी से चित्र कुछ बनाने दो,
मौसम है कितना अनुरूप |
आंगन में उतर आई धूप ||
कलियों ने घूंघट से झांका भर,
कानों में शहनाई उभर गयी |
चहक गये गात गात
महक गये पात पात |
सतरंगी सपनों में भ्रमरी क्यों तड़प रही,
रानी सी बासन्ती धूप |
दूध में नहाया सा रूप ||
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
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