चाहे जीवन की सारी खुशियाँ ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का विश्वास दिला दो
जिसके लिए सभी रिश्तों को आदर्शों को मिटा दिया हो
जिस पुनीत संकल्प पक्ष में मन समिधा सा जला दिया है
सारे वे अनजाने शाश्वत सपने कैसे टूट गये हैं
मुड़कर पीछे देखा तो आदर्श कहाँ के छूट गये हैं
एक बार फिर सँवर सकू मैं ऐसा कुछ आभास दिला दो
चाहे जीवन की सारी…………..
जीवन की लम्बी राहों पर रस्ते चौरस्ते आते हैं
जिनकी जैसी गति होती है उसी नियति से सब चलते है
तुम्हें मील का पत्थर माना परिवर्तन की नियति हमारी
भीड़ भरी गलियों में अपनी संस्कृति विलख रही वेचारी
कोई उंगली थाम सके बस इतनी सी ही आस दिला दो
चाहे जीवन की सारी…………..
अब तक तो अन्धेरे में ही नई किरन के लिए भटकता
जीवन की विभीषिका सम्मुख आत्म स्नेह के लिए तरसता
अपना कौन पराया किसको मानू यह कुछ समझ न पाया
मृग तृष्णा सा मन बेवस है कभी इधर तो उधर घुमाया
एकाकी ही भटक रहा हूँ कोई सहज प्रकाश दिला दो
चाहे जीवन की सारी खुशिया ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का विश्वास दिला दो
लीक पीटता गया कि शायद कहीं सहज साकार मिलेगा
वर्तमान से जूझ रहा था शायद कल प्रतिकार मिलेगा
पावों में चेतना आ गयी मन में नव उत्साह आ गया
पंखों में भी गति आई है आखों में उन्माद छा गया
उड़ने की आशा में बैठा हूँ कोई आकाश दिला दो
मेरे जीवन की सारी………….
चन्दन वन में रहने वाला फणिधर भी विषधर होता है
आस्तीन में पलने वाला नाग सदा बर्बर होता है
सोचा था तुम हो गुलाब हम कांटे ही बनकर जी लेंगे
तुम तक कोई हाथ बढ़ेगा उसको लहू लुहान करेंगे
कुछ न सही तो आत्मदाह कर सकू यही अभिशाप दिला दो
मेरे जीवन की सारी खुशियाँ ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का अधिकार दिला दो |
चाहे जीवन की सारी
चाहे जीवन की सारी खुशियाँ ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का विश्वास दिला दो
जिसके लिए सभी रिश्तों को आदर्शों को मिटा दिया हो
जिस पुनीत संकल्प पक्ष में मन समिधा सा जला दिया है
सारे वे अनजाने शाश्वत सपने कैसे टूट गये हैं
मुड़कर पीछे देखा तो आदर्श कहाँ के छूट गये हैं
एक बार फिर सँवर सकू मैं ऐसा कुछ आभास दिला दो
चाहे जीवन की सारी…………..
जीवन की लम्बी राहों पर रस्ते चौरस्ते आते हैं
जिनकी जैसी गति होती है उसी नियति से सब चलते है
तुम्हें मील का पत्थर माना परिवर्तन की नियति हमारी
भीड़ भरी गलियों में अपनी संस्कृति विलख रही वेचारी
कोई उंगली थाम सके बस इतनी सी ही आस दिला दो
चाहे जीवन की सारी…………..
अब तक तो अन्धेरे में ही नई किरन के लिए भटकता
जीवन की विभीषिका सम्मुख आत्म स्नेह के लिए तरसता
अपना कौन पराया किसको मानू यह कुछ समझ न पाया
मृग तृष्णा सा मन बेवस है कभी इधर तो उधर घुमाया
एकाकी ही भटक रहा हूँ कोई सहज प्रकाश दिला दो
चाहे जीवन की सारी खुशिया ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का विश्वास दिला दो
लीक पीटता गया कि शायद कहीं सहज साकार मिलेगा
वर्तमान से जूझ रहा था शायद कल प्रतिकार मिलेगा
पावों में चेतना आ गयी मन में नव उत्साह आ गया
पंखों में भी गति आई है आखों में उन्माद छा गया
उड़ने की आशा में बैठा हूँ कोई आकाश दिला दो
मेरे जीवन की सारी………….
चन्दन वन में रहने वाला फणिधर भी विषधर होता है
आस्तीन में पलने वाला नाग सदा बर्बर होता है
सोचा था तुम हो गुलाब हम कांटे ही बनकर जी लेंगे
तुम तक कोई हाथ बढ़ेगा उसको लहू लुहान करेंगे
कुछ न सही तो आत्मदाह कर सकू यही अभिशाप दिला दो
मेरे जीवन की सारी खुशियाँ ले लो तुम
पर मुझको जीने भर का अधिकार दिला दो |
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
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