शूल बन कर फूल भी चुभते रहे अर्थ बिन जो शब्द थे मथते रहे रश्मियाँ बन उर्मियाँ ढलती रही वे कनक घट विष भरे झरते रहे।। इन कुहासों में घिरी अतिरंजनाएँ है सिमटता मुट्ठियों में आसमां भी हम बिखरते स्वप्न के अंबार में चाहतों की ही किरच चुनते रहे।। जिन्दगी बैसाखियों पर चल रही चू गई संकल्पनाएँ क्षार बन कर कोंपलें अर्पित हुई पतझार को हम पिपासा ही लिये चलते रहे।। – रामनारायण सोनी रामनारायण सोनी जी की कविता रामनारायण सोनी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
बैसाखियों पर जिन्दगी
शूल बन कर फूल भी चुभते रहे
अर्थ बिन जो शब्द थे मथते रहे
रश्मियाँ बन उर्मियाँ ढलती रही
वे कनक घट विष भरे झरते रहे।।
इन कुहासों में घिरी अतिरंजनाएँ
है सिमटता मुट्ठियों में आसमां भी
हम बिखरते स्वप्न के अंबार में
चाहतों की ही किरच चुनते रहे।।
जिन्दगी बैसाखियों पर चल रही
चू गई संकल्पनाएँ क्षार बन कर
कोंपलें अर्पित हुई पतझार को
हम पिपासा ही लिये चलते रहे।।
– रामनारायण सोनी
रामनारायण सोनी जी की कविता
रामनारायण सोनी जी की रचनाएँ
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