लेखनी स्वर्ण प्रासादों को खण्डहर बना सकती है,
लेखनी ध्वस्त झोपड़ियों में तूफान उगा सकती है |
थके हुये पाँवों में जब चेतना उमड़कर आती,
लेखनी विश्व के नये ज्ञान की जोत जगा सकती है |
लेखनी नहीं, जो अमराई की छाह देख रुक जाये,
लेखनी नहीं जो दमन चक्र से भयाक्रान्त झुक जाये
सागर की चौड़ी छाती चीरती निकल जाती है,
लेखनी सदा नगराजो की भी नीव हिला सकती है ||
पौरुष की सत्ता थकित देख लेखनी निकल पड़ती है,
बारूदी ज्वाला में भी निर्वाध सदा चलती है,
तूफानों के कजरारे घन में विघुत वन जाती,
ज्वाला मुखियों को पाट अग्नि को वहीं बुझा सकती है |
जब कभी वटोही जीवन से निराश होकर रह जाता,
जब प्रेमी के आकुल मन में नैराश्य सहज रह जाता,
जब गरल पान के लिए खड़ा शंकर भी शिव बन जाता,
लेखनी तभी जागरण भरा सन्देश दिया करती है |
लेखनी स्वर्ण प्रासादों को
लेखनी स्वर्ण प्रासादों को खण्डहर बना सकती है,
लेखनी ध्वस्त झोपड़ियों में तूफान उगा सकती है |
थके हुये पाँवों में जब चेतना उमड़कर आती,
लेखनी विश्व के नये ज्ञान की जोत जगा सकती है |
लेखनी नहीं, जो अमराई की छाह देख रुक जाये,
लेखनी नहीं जो दमन चक्र से भयाक्रान्त झुक जाये
सागर की चौड़ी छाती चीरती निकल जाती है,
लेखनी सदा नगराजो की भी नीव हिला सकती है ||
पौरुष की सत्ता थकित देख लेखनी निकल पड़ती है,
बारूदी ज्वाला में भी निर्वाध सदा चलती है,
तूफानों के कजरारे घन में विघुत वन जाती,
ज्वाला मुखियों को पाट अग्नि को वहीं बुझा सकती है |
जब कभी वटोही जीवन से निराश होकर रह जाता,
जब प्रेमी के आकुल मन में नैराश्य सहज रह जाता,
जब गरल पान के लिए खड़ा शंकर भी शिव बन जाता,
लेखनी तभी जागरण भरा सन्देश दिया करती है |
लेखनी ध्वस्त झोपड़ियों में तूफान उगा सकती है |
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की कविता
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
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