नागफनी बरगद के नीचे पले, चलो चले अब तो बबूल ही भले | भोर की किरन अब विषधर सी डस जाती, घायल मन मछरी जब बरबस ही फँस जाती | छाया के धोखे में हाड तक जले, चलो चले अब तो बबूल ही भले || तपती रेती ही अब जीवन की आशा है, तारों का आर्द्र नयन दुख की परिभाषा है || भींग-भींग पलकों में अश्रुधार मचले, चलो चलें अब तो बबूल ही भले || जूही की कलियाँ अब सपनों की बातें हैं सूरज की ज्योति बुझी अन्तर की घातें हैं || पोर पोर टूट-टूट उम्र सी ढले, चलो चले अब तो बबूल ही भले || जाने कितने विषधर डसने को आ रहे, अमृत के नाम सदा जहर ही पिला रहे || काँटो की सेज कोई कितना सभलें, चलो चले अब तो बबूल ही भले || नगाफनी वरगद के नीचे पले चलो अब तो बबूल ही भले || – देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दद्दा’ देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
नागफनी बरगद के नीचे पले
नागफनी बरगद के नीचे पले,
चलो चले अब तो बबूल ही भले |
भोर की किरन अब विषधर सी डस जाती,
घायल मन मछरी जब बरबस ही फँस जाती |
छाया के धोखे में हाड तक जले,
चलो चले अब तो बबूल ही भले ||
तपती रेती ही अब जीवन की आशा है,
तारों का आर्द्र नयन दुख की परिभाषा है ||
भींग-भींग पलकों में अश्रुधार मचले,
चलो चलें अब तो बबूल ही भले ||
जूही की कलियाँ अब सपनों की बातें हैं
सूरज की ज्योति बुझी अन्तर की घातें हैं ||
पोर पोर टूट-टूट उम्र सी ढले,
चलो चले अब तो बबूल ही भले ||
जाने कितने विषधर डसने को आ रहे,
अमृत के नाम सदा जहर ही पिला रहे ||
काँटो की सेज कोई कितना सभलें,
चलो चले अब तो बबूल ही भले ||
नगाफनी वरगद के नीचे पले
चलो अब तो बबूल ही भले ||
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दद्दा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
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