रह न जाये अब अन्धेरा तोड़ दो तटबन्ध सारे मुक्त हो जाये सवेरा व्योम की परछाइयाँ जब बादलों से उतर आयें छितिज की काली घटा जब एक पल में बिखर जाये खिड़कियों से झाँककर विश्वास का उतरे चितेरा रह न जाये अब अन्धेरा सिमटकर पदचिन्ह नभ में खण्डहर सा ढह गया हो ओस पर जैसे किसी ने पाँव सहसा रख दिया हो गंध के मृदु पंख पर सतरंग है कितना घनेरा रह न जाये अब अन्धेरा अब न बन्धक भानु को कोई बना सकता कभी स्वर्ण के ये पंख गिरवी रख नही सकता कोई साधना की साध ले मुसका रहा प्यारा सवेरा रह न जाये अब अन्धेरा वन्द गलियारे सभी दिनमान को धेकों नहीं पुलक पंखी की उड़ाने लयवती रोको नहीं कौन जाने कल कहाँ किस ठौर पर होगा बसेरा रह न जाये अब अंधेरा | – देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दद्दा’ देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
रह न जाये अब अन्धेरा
रह न जाये अब अन्धेरा
तोड़ दो तटबन्ध सारे मुक्त हो जाये सवेरा
व्योम की परछाइयाँ
जब बादलों से उतर आयें
छितिज की काली घटा
जब एक पल में बिखर जाये
खिड़कियों से झाँककर विश्वास का उतरे चितेरा
रह न जाये अब अन्धेरा
सिमटकर पदचिन्ह नभ में
खण्डहर सा ढह गया हो
ओस पर जैसे किसी ने
पाँव सहसा रख दिया हो
गंध के मृदु पंख पर सतरंग है कितना घनेरा
रह न जाये अब अन्धेरा
अब न बन्धक भानु को
कोई बना सकता कभी
स्वर्ण के ये पंख गिरवी
रख नही सकता कोई
साधना की साध ले मुसका रहा प्यारा सवेरा
रह न जाये अब अन्धेरा
वन्द गलियारे सभी
दिनमान को धेकों नहीं
पुलक पंखी की उड़ाने
लयवती रोको नहीं
कौन जाने कल कहाँ किस ठौर पर होगा बसेरा
रह न जाये अब अंधेरा |
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दद्दा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
[simple-author-box]
अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें