दिन भर की
भाग दौड़ के बाद
थके हारे
पक्षी बेचारे
अपने घास-फूस के
घोसलों की और लौट रहे हैं
मैं देख रहा हूँ
थका सूरज
आकाश की ऊँचाइयों से उतरकर
पश्चिम की ओर लुढ़क सा रहा है
जहाँ-
रात के थोड़ा पहले ही
वह अन्धकार की
काली कोठरी में बैठेकर
अचानक आँखे मूँद लेगा
और दुनियाँ को
प्रकाश देते रहने की
अपनी जिम्मेदारी से
मुँह मोड़ लेगा
दिन भर की भाग दौड़
दिन भर की
भाग दौड़ के बाद
थके हारे
पक्षी बेचारे
अपने घास-फूस के
घोसलों की और लौट रहे हैं
मैं देख रहा हूँ
थका सूरज
आकाश की ऊँचाइयों से उतरकर
पश्चिम की ओर लुढ़क सा रहा है
जहाँ-
रात के थोड़ा पहले ही
वह अन्धकार की
काली कोठरी में बैठेकर
अचानक आँखे मूँद लेगा
और दुनियाँ को
प्रकाश देते रहने की
अपनी जिम्मेदारी से
मुँह मोड़ लेगा
– गोविन्द व्यथित
गोविन्द व्यथित जी की कविता
गोविन्द व्यथित जी की रचनाएँ
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