सत्ता की चाभी लिए, मतदाता लाचार। लोकतंत्र की आड़ में, सजा हुआ बाजार।। नारों वादों का चले, रजत सियासी तीर। शस्त्र जुबां को धार दे, उतरे हैं रणधीर।। सिसक रही है द्रौपदी, गुमसुम राधेश्याम। कौरव हावी हो गए, क्या होगा अंजाम।। देवों के उपहास से, बन बैठे विद्वान। व्यर्थ प्रलापों से रजत, मिटा रहे सम्मान।। अवसादों की धुंध से, विचलित होना भूल। पतझड़ बीते ही खिलें, डाली डाली फूल।। –अवधेश कुमार ‘रजत’ अवधेश कुमार 'रजत' जी के दोहे अवधेश कुमार 'रजत' जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
सत्ता की चाभी लिए
सत्ता की चाभी लिए, मतदाता लाचार।
लोकतंत्र की आड़ में, सजा हुआ बाजार।।
नारों वादों का चले, रजत सियासी तीर।
शस्त्र जुबां को धार दे, उतरे हैं रणधीर।।
सिसक रही है द्रौपदी, गुमसुम राधेश्याम।
कौरव हावी हो गए, क्या होगा अंजाम।।
देवों के उपहास से, बन बैठे विद्वान।
व्यर्थ प्रलापों से रजत, मिटा रहे सम्मान।।
अवसादों की धुंध से, विचलित होना भूल।
पतझड़ बीते ही खिलें, डाली डाली फूल।।
–अवधेश कुमार ‘रजत’
अवधेश कुमार 'रजत' जी के दोहे
अवधेश कुमार 'रजत' जी की रचनाएँ
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