बच्चा जनकर जवाँ बनाना, साधारण सी बात नहीं ।
जाग – जागकर काटी ना हो, ऐसी कोई रात नहीं ।।
एक साल तक उदर और फिर आँचल में ढँककर रखना ।
गर्म, झाल, अनजान खाद्य को, बच्चे से पहले चखना ।।
मूक गले में भी जुबान भर, लोरी गीत सुनाती है ।
थाली में चन्दा मामा को, लाकर बहुत रिझाती है ।।
बदन जलाकर, दूध पिलाकर, मर्यादा को बोती वो ।
बच्चे के सँग में हँसती वो, बच्चे के सँग रोती वो ।।
बड़ा हुआ जब बच्चा तो, जग से उसकी पहचान हुई ।
जाति क्षेत्र मज़हब आरक्षण, भाषा भजन अजान मुई ।।
और भूख की बात न पूछो, बिना बुलाए आ जाती ।
‘हम गरीब माँ के बच्चे हैं’, बार – बार बतला जाती ।।
आटा गीला जब भी होता, भूख मिटाई पानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
स्वाभिमान की आँच और दुख की भट्ठी में जलता है ।
तब कोई बेटा जाकर, सरहद पर सैनिक बनता है ।।
कुछ रोटी, कुछ प्याज – नमक का, झोला घर भिजवाता वो ।
माँ की आँखों का तारा नित, नाकों चने चबाता वो ।।
माँ – बेटे के नैन – सिंधु के मध्य नहीं होती नौका ।
भूख और कर्त्तव्य बीच में, इधर-उधर चौकी – चौका ।।
मोबाइल के ‘हलो’ साथ में, सिंसकी की ही ध्वनि आती ।
फिर दोनों का मौन, विरह की सजल कहानी कह जाती ।।
‘मैं अच्छी हूँ यहाँ और तुम ख्याल रखो बेटे अपना ।’
फोन सहारा बना बीच में और मिलन लगता सपना ।।
आँचल का वह फूल न जाने कब हो आया अंगारा ।
सौ- सौ दुश्मन पर भारी है, माँ की आँखों का तारा ।।
किन्तु वीर को डँसी हमेशा साँपों की नादानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
एक दिवस वह वीर सिपाही, ओढ़ तिरंगा आता है ।
मातृभूमि पर हो शहीद वह, माँ का शीश उठाता है ।।
किन्तु कभी जब कोई चंदन चिरनिद्रा में सोता है ।
संसद के गलियारे में वह ‘अंक’ मात्र बस होता है ।।
नेताओं का सीना है बस पोल, खोलकर दिखलाता ।
छप्पन इंची से बढ़कर अपना सबूत वो दे जाता ।।
हे संसद के सत्ताधारी, बहुत बुरी तेरी आदत ।
सैनिक की बोटी पर दोगे, कब तक दुश्मन को दावत ?
देशद्रोहियों को बिरियानी की परसी जाती थाली ।
सैनिक के हित रूखा भोजन, हाय! देश की बदहाली ।।
माननीय गद्दार कहाते, सैनिक साधारण होता ।
संविधान की बलि वेदी पर, सस्ते में जीवन खोता ।।
अक्सर सैनिक को मारा है, संसद की शैतानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
आओ नव इतिहास लिखेंगे, छोड़ बन्दरों की टोली ।
इधर गिरेगा इक पत्थर तो उधर गिरेगी सौ गोली ।।
संसद, संविधान, अफ़सर, नेता बाधक, बन आएँगे ।
दुश्मन से पहले उनको ही, सरहद पर दफनाएँगे ।।
चूहे – बिल्ली के खेलों में, लाखों लाल निसार हुए ।
कुछ घायल हो गए युद्ध में, कुछ माँ से उद्धार हुए ।।
सदा गरीबों की माएँ क्यों अपने बच्चे वारेगी ?
जो संसद में नीति बनाते, उनको कब धिक्कारेगी ?
अब दिल्ली संदेश भेज दो, संसद के गलियारे में ।
कुछ बच्चे वे भी निसार दें, मातृभूमि के बारे में ।।
फिर दुश्मन को गले लगाकर, दावत देना भाएगा ।
जिस दिन कफन ओढ़कर उनका भी बेटा घर आएगा ।।
संसद से सरहद की दूरी, बढ़ा गई मनमानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
भारत माँ की लाज रखी है
भारत माँ की लाज रखी है माँओं की कुर्बानी ने
बच्चा जनकर जवाँ बनाना, साधारण सी बात नहीं ।
जाग – जागकर काटी ना हो, ऐसी कोई रात नहीं ।।
एक साल तक उदर और फिर आँचल में ढँककर रखना ।
गर्म, झाल, अनजान खाद्य को, बच्चे से पहले चखना ।।
मूक गले में भी जुबान भर, लोरी गीत सुनाती है ।
थाली में चन्दा मामा को, लाकर बहुत रिझाती है ।।
बदन जलाकर, दूध पिलाकर, मर्यादा को बोती वो ।
बच्चे के सँग में हँसती वो, बच्चे के सँग रोती वो ।।
बड़ा हुआ जब बच्चा तो, जग से उसकी पहचान हुई ।
जाति क्षेत्र मज़हब आरक्षण, भाषा भजन अजान मुई ।।
और भूख की बात न पूछो, बिना बुलाए आ जाती ।
‘हम गरीब माँ के बच्चे हैं’, बार – बार बतला जाती ।।
आटा गीला जब भी होता, भूख मिटाई पानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
स्वाभिमान की आँच और दुख की भट्ठी में जलता है ।
तब कोई बेटा जाकर, सरहद पर सैनिक बनता है ।।
कुछ रोटी, कुछ प्याज – नमक का, झोला घर भिजवाता वो ।
माँ की आँखों का तारा नित, नाकों चने चबाता वो ।।
माँ – बेटे के नैन – सिंधु के मध्य नहीं होती नौका ।
भूख और कर्त्तव्य बीच में, इधर-उधर चौकी – चौका ।।
मोबाइल के ‘हलो’ साथ में, सिंसकी की ही ध्वनि आती ।
फिर दोनों का मौन, विरह की सजल कहानी कह जाती ।।
‘मैं अच्छी हूँ यहाँ और तुम ख्याल रखो बेटे अपना ।’
फोन सहारा बना बीच में और मिलन लगता सपना ।।
आँचल का वह फूल न जाने कब हो आया अंगारा ।
सौ- सौ दुश्मन पर भारी है, माँ की आँखों का तारा ।।
किन्तु वीर को डँसी हमेशा साँपों की नादानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
एक दिवस वह वीर सिपाही, ओढ़ तिरंगा आता है ।
मातृभूमि पर हो शहीद वह, माँ का शीश उठाता है ।।
किन्तु कभी जब कोई चंदन चिरनिद्रा में सोता है ।
संसद के गलियारे में वह ‘अंक’ मात्र बस होता है ।।
नेताओं का सीना है बस पोल, खोलकर दिखलाता ।
छप्पन इंची से बढ़कर अपना सबूत वो दे जाता ।।
हे संसद के सत्ताधारी, बहुत बुरी तेरी आदत ।
सैनिक की बोटी पर दोगे, कब तक दुश्मन को दावत ?
देशद्रोहियों को बिरियानी की परसी जाती थाली ।
सैनिक के हित रूखा भोजन, हाय! देश की बदहाली ।।
माननीय गद्दार कहाते, सैनिक साधारण होता ।
संविधान की बलि वेदी पर, सस्ते में जीवन खोता ।।
अक्सर सैनिक को मारा है, संसद की शैतानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
आओ नव इतिहास लिखेंगे, छोड़ बन्दरों की टोली ।
इधर गिरेगा इक पत्थर तो उधर गिरेगी सौ गोली ।।
संसद, संविधान, अफ़सर, नेता बाधक, बन आएँगे ।
दुश्मन से पहले उनको ही, सरहद पर दफनाएँगे ।।
चूहे – बिल्ली के खेलों में, लाखों लाल निसार हुए ।
कुछ घायल हो गए युद्ध में, कुछ माँ से उद्धार हुए ।।
सदा गरीबों की माएँ क्यों अपने बच्चे वारेगी ?
जो संसद में नीति बनाते, उनको कब धिक्कारेगी ?
अब दिल्ली संदेश भेज दो, संसद के गलियारे में ।
कुछ बच्चे वे भी निसार दें, मातृभूमि के बारे में ।।
फिर दुश्मन को गले लगाकर, दावत देना भाएगा ।
जिस दिन कफन ओढ़कर उनका भी बेटा घर आएगा ।।
संसद से सरहद की दूरी, बढ़ा गई मनमानी ने ।
भारत माँ की लाज रखी है, माँओं की कुर्बानी ने ।।
–अवधेश कुमार ‘अवध’
अवधेश कुमार 'अवध' जी की रचनाएँ
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