बरस रहा है जड़-चेतन से, सुधियों का अनुराग । मिलन-जोत भी लगा रही है, राजभवन में आग ।। पत्र एक न आया उसका, नहीं कोई संदेस चला गया वह मनभावन, क्या जाने किस परदेस डस जाये न साधक मन को, विरही क्षणों का नाग ।। बरस रहा है——— आज जिधर भी जाता पड़ते, व्यंग्य गरल के छींटे क्या बतलाऊं नेह फलों को, कड़वे हैं या मीठे लगा गया है मन-मस्तक पर, जनम-जनम के दाग ।। बरस रहा है————– हमने भी खेली थी होली, मनमोहन के संग उमड़ रहा है मन-श्वासों में, वह मादक सा रंग अन्तर्द्वन्द का नायक बनकर, आया है फिर फाग ।। बरस रहा है ————— मन करता था यही खेल हम, खेलें आठोयाम शीशम देवदार पर लिखना, इक दूजे का नाम मन-वीणा ने छेड़ दिया है, वही पुराना राग ।। बरस रहा है —————— क्या संदेसा लाया उनका, तनिक बता तो दे मेरे शाँत जलाशय में तू, कमल खिला तो दे क्यों बैठा है मौन साधकर, नीम वृक्ष पर काग ।। बरस रहा है ————— फूलों के अब पेड़ खोजना, है कितना अवसाद नागफनी के चढ़े हैं साग़र, घर-घर में उन्माद भँवरों के अधरों तक आये, कैसे यहाँ पराग ।। – विनय साग़र जायसवाल विनय साग़र जायसवाल जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
बरस रहा है जड़-चेतन से, सुधियों का अनुराग
बरस रहा है जड़-चेतन से, सुधियों का अनुराग ।
मिलन-जोत भी लगा रही है, राजभवन में आग ।।
पत्र एक न आया उसका, नहीं कोई संदेस
चला गया वह मनभावन, क्या जाने किस परदेस
डस जाये न साधक मन को, विरही क्षणों का नाग ।।
बरस रहा है———
आज जिधर भी जाता पड़ते, व्यंग्य गरल के छींटे
क्या बतलाऊं नेह फलों को, कड़वे हैं या मीठे
लगा गया है मन-मस्तक पर, जनम-जनम के दाग ।।
बरस रहा है————–
हमने भी खेली थी होली, मनमोहन के संग
उमड़ रहा है मन-श्वासों में, वह मादक सा रंग
अन्तर्द्वन्द का नायक बनकर, आया है फिर फाग ।।
बरस रहा है —————
मन करता था यही खेल हम, खेलें आठोयाम
शीशम देवदार पर लिखना, इक दूजे का नाम
मन-वीणा ने छेड़ दिया है, वही पुराना राग ।।
बरस रहा है ——————
क्या संदेसा लाया उनका, तनिक बता तो दे
मेरे शाँत जलाशय में तू, कमल खिला तो दे
क्यों बैठा है मौन साधकर, नीम वृक्ष पर काग ।।
बरस रहा है —————
फूलों के अब पेड़ खोजना, है कितना अवसाद
नागफनी के चढ़े हैं साग़र, घर-घर में उन्माद
भँवरों के अधरों तक आये, कैसे यहाँ पराग ।।
– विनय साग़र जायसवाल
विनय साग़र जायसवाल जी की रचनाएँ
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