स्टेशन से मीलो की दूरी पर
खड़ा कर दिया गया है मुझे
निर्जन में, अकेले, चुपचाप
पाषाण की भांति
मेरी आँखें, सुर्ख लाल हो गई हैं
जागते-जागते रात भर
पहले शाम को भूख-प्यास के नाम पर
थोड़ा सा, मिट्टी का तेल
पिला दिया जाता था हमें
जिससे मेरे ह्रदय में
जलन सी होती थी
उसकी दुर्गन्ध में सांस लेने में
घुटन सी होती थी
परन्तु अब तो
यातना और भी
बढ़ा दी गई है
मेरे भीतर करेंट की लाइन
दौड़ा दी गई है
जिससे मेरे जिस्म में
हर समय झनझनाहट रहती है
मुक्ति की छटपटाहट रहती है
जब सारी दुनियाँ सोती है
तो मेरे साथ जागता है
केवल स्टेशन मास्टर
मुझे उसके इशारों पर
मदारी के बन्दर की तरह
खेल दिखाना पड़ता है
सारा खेल खत्म हो जाने के बाद
जब वह
सलाम करने को कहता है
तो आशा की एक हरी ज्योति के साथ
मैं अदब से झुक जाता हूँ?
और क्या पाता हूँ?
मात्र यही कि लोग
अपनी-अपनी जगह पर
बैठे चल देते हैं
और मेरे बगल से गुजर जाती है
उनकी सीटी बजाती,
धड़धड़ाती रेलगाड़ी
और मैं अपनी पूर्वस्थिति में
वापस हो जाता हूँ
अगली गाड़ी के
आने की प्रतीक्षा में
पूरी मुस्तैदी के साथ |
स्टेशन से मीलो की दूरी पर
स्टेशन से मीलो की दूरी पर
खड़ा कर दिया गया है मुझे
निर्जन में, अकेले, चुपचाप
पाषाण की भांति
मेरी आँखें, सुर्ख लाल हो गई हैं
जागते-जागते रात भर
पहले शाम को भूख-प्यास के नाम पर
थोड़ा सा, मिट्टी का तेल
पिला दिया जाता था हमें
जिससे मेरे ह्रदय में
जलन सी होती थी
उसकी दुर्गन्ध में सांस लेने में
घुटन सी होती थी
परन्तु अब तो
यातना और भी
बढ़ा दी गई है
मेरे भीतर करेंट की लाइन
दौड़ा दी गई है
जिससे मेरे जिस्म में
हर समय झनझनाहट रहती है
मुक्ति की छटपटाहट रहती है
जब सारी दुनियाँ सोती है
तो मेरे साथ जागता है
केवल स्टेशन मास्टर
मुझे उसके इशारों पर
मदारी के बन्दर की तरह
खेल दिखाना पड़ता है
सारा खेल खत्म हो जाने के बाद
जब वह
सलाम करने को कहता है
तो आशा की एक हरी ज्योति के साथ
मैं अदब से झुक जाता हूँ?
और क्या पाता हूँ?
मात्र यही कि लोग
अपनी-अपनी जगह पर
बैठे चल देते हैं
और मेरे बगल से गुजर जाती है
उनकी सीटी बजाती,
धड़धड़ाती रेलगाड़ी
और मैं अपनी पूर्वस्थिति में
वापस हो जाता हूँ
अगली गाड़ी के
आने की प्रतीक्षा में
पूरी मुस्तैदी के साथ |
– गोविन्द व्यथित
गोविन्द व्यथित जी की कविताएं
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