कुछ भी ना बाहर है बाबा जो भी है भीतर है बाबा सावन का मौसम है फिर भी क्यों पसरा है पतझर बाबा वहीं क़दम अपने रखने हैं जहाँ मिले आदर है बाबा उतने ही तुम पैर पसारो जितनी चादर घर है बाबा बेघर क्यों कहते हो खुद को अपने भीतर घर है बाबा उससे जुड़ना है तो जुड़ जा प्रेम का वो सागर है बाबा सच की चादर बुनते हो तो फिर काहे का डर है बाबा – जगदीश तिवारी जगदीश तिवारी जी की ग़ज़ल [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
सावन का मौसम है फिर भी क्यों पसरा है पतझर
कुछ भी ना बाहर है बाबा
जो भी है भीतर है बाबा
सावन का मौसम है फिर भी
क्यों पसरा है पतझर बाबा
वहीं क़दम अपने रखने हैं
जहाँ मिले आदर है बाबा
उतने ही तुम पैर पसारो
जितनी चादर घर है बाबा
बेघर क्यों कहते हो खुद को
अपने भीतर घर है बाबा
उससे जुड़ना है तो जुड़ जा
प्रेम का वो सागर है बाबा
सच की चादर बुनते हो तो
फिर काहे का डर है बाबा
– जगदीश तिवारी
जगदीश तिवारी जी की ग़ज़ल
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